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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती

थाती

(२)
दूसरे दिन मुझे अकेली ही पानी भरने जाना पड़ा। मैं रस्सी और घड़ा लेकर पानी भरने गई तो ज़रूर, पर दिल धड़क रहा था कि बनता है या नहीं। न सास साथ थीं, और न कोई कुएँ पर ही था। मैंने घूँघट खोल लिया और रस्सी को अच्छी तरह घड़े के मुँह पर बांधकर कुएँ में डाल दिया। 'डब' 'डब' करके बड़ी देर में कहीं घड़े में पानी भरा-उसे खींचने लगी। किसी प्रकार खिंचता ही न था। ज्यों-त्यों करके आधी रस्सी खींच पायी थी कि वे सामने से आते हुए दिखायी दिए। कुआँ उनके अहाते के ही अंदर था और बंगले में जाने का रास्ता भी वहीं से था। सामने से वे आते हुए दिखे, लाज के मारे ज्यों ही मैंने घूँघट सरकाने के लिए एक हाथ से रस्सी छोड़ी, त्यों ही अकेला दूसरा हाथ पानी से भरे हुए घड़े का वजन न संभाल सका। झटके के साथ रस्सी समेत घड़ा कुएँ में जा गिरा। मैं भी गिरते-गिरते बची। एक मिनट में यह, सब कुछ हो गया। वे बंगले से कुएँ के पास आ चुके थे। मैं बड़ी घबराई, घूँघट-ऊँघट सरकाना तो भूल गई, झुककर कुएँ में देखने लगी। मेरे पास तो रस्सी और घड़ा निकालने का कोई साधन ही न था। निरुपाय हो कातर दृष्टि से उनकी ओर देखा। मेरी अवस्था पर शायद उन्हें दया आई। वे पास आकर बोले, “आप घबराइए नहीं, मैं अभी घड़ा निकलवाए देता हूँ” फिर कुछ ठहरकर मुस्कराते हुए बोले, “किंतु आपने यह साबित कर दिया कि आप शहर की एक अल्हड़ लड़की हैं।”

मैं जरा हंसी और अपना घूँघट सरकाने लगी । मुझे घूँघट सरकाते देख वे जरा मुस्कराए, मैं भी जरा हंस पड़ी पर कुछ बोली नहीं। उनके नौकर आए और देखते-ही-देखते रस्सी समेत घड़ा निकाल लिया गया। मैं घड़ा उठाकर अपने घर की तरफ चली। शब्दों में नहीं, किंतु कृतज्ञता भरी आँखों से मैंने उनसे कहा, “मैं आपके इस उपकार का बदला जीवन में कभी न चुका सकूँगी।” करीब पौन घंटा कुएँ पर लग गया। अम्मा जी की घुड़कियों का डर तो लगा ही था। जल्दी-जल्दी आई, घड़े को घिनौची पर रख, रस्सी को खूँटी पर टाँगने के लिए मैंने ज्योंही हाथ ऊपर उठाया, देखा कि एक हाथ का सोने का कंगन नहीं है। तुम कहोगी कि पानी भरने वाली और सोने के कंगन, यह कैसा मेल! यह भी बताती हूँ, यह कंगन मेरी माँ का था। मरते समय उन्होंने अनुरोध किया था कि यह कंगन व्याह के समय मुझे पैर-पुजाई में दिया जाए। इस प्रकार यह कंगन मुझे मिला था। रस्सी टाँगकर मैं फिर कुँए की तरफ़ भागी, देखा तो वे सामने से आ रहे थे। उन्होंने यह कहकर कि “यह तुम्हारे अल्हड़पन की दूसरी, निशानी है” कंगन मेरी तरफ़ बढ़ा दिया । कंगन लेकर चुपचाप मैंने जेब में रख लिया और जल्दी ज़ल्दी घर आई।

घर आकर देखा, पतिदेव स्कूल से लौटे थे । 'अम्मा जी बड़े क्रोध में उनसे कह रहीं थीं-

देखा नई बहू के लच्छन । एक घड़ा पानी भरने गई तो घंटे भर बाद लौटी, और यहाँ पानी रख कर फिर दीवानी की तरह कुएँ की तरफ़ भागी । मैंने तो पहले ही कहा था कि शहर की लड़की न व्याहो, पर तुम न माने । बेटा ! भला यह हमारे घर निभने के लच्छन हैं ? और सब तो सब, पर ज़मीदार के लड़के से बात किये बिना इसकी क्या अटकी थी ? यह इधर से भागी जा रही थी वह सामने से आ रहा था। उसने जाने क्या इसे दिया और इसने लेकर जेब में रख लिया। मुझे तो यह बातें नहीं सुहाती! फिर तुम्हारी बहू है; तुम जानो; बिगाड़ो चाहे बनाओ। मेरी तरफ उन्होंने गुस्से से देखकर पूँछा-- क्या है तुम्हारी जेब में बतलाओ तो !
मैंने कंगन निकालकर उनके सामने रख दिया। वे फिर डाँट कर बोले-“यह उसके पास कैसे पहुँचा”?
मैंने डरते-डरते अपराधिनी की तरह आदि से लेकर अंत तक कुएँ पर का सारा क़िस्सा उन्हें सुना दिया। इस पर अम्मा जी और पतिदेव दोनों ही की झिड़कियां मुझे सहनी पड़ीं। साथ ही ताक़ीद भी कर दी गई कि मैं अब 'उनसे' कभी न बोलूं ।

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